Sunday, July 27, 2008

परस्पर..



कुछ कहाँ बाक़ी रहा मुझमे
फिरा मारा - मारा, पत्थर - पत्थर..
कुछ कभी हासिल हुआ, कोई भी मंज़र
कर्ज़ा रहा वो मुझपर, परस्पर.. परस्पर..
कर्ज़ा रहा वो मुझपर, परस्पर.. परस्पर..

एक उधारी का प्याला..
एक मदहोश उजाला..
एक सरफिरा खिलौना..
एक मह्फ़ूस बिछौना..
एक दिया मोम का गंगा के तट पर
कुछ कभी हासिल हुआ, कोई भी मंज़र
कर्ज़ा रहा वो मुझपर, परस्पर.. परस्पर..
कर्ज़ा रहा वो मुझपर, परस्पर.. परस्पर..

फटी - फटी तालियों की आहटें..
हरी, नीली, पीली, गीली चाहतें..
एक छींक घन - घन बारिश की..
एक दो अनजान गुज़ारिश भी..
और वो लिखना प्यार से दो मीठे अक्षर
कुछ कभी हासिल हुआ, कोई भी मंज़र
कर्ज़ा रहा वो मुझपर, परस्पर.. परस्पर..
कर्ज़ा रहा वो मुझपर, परस्पर.. परस्पर..

2 comments:

Unknown said...

Somehow this reminds me so much of 'Kaagaz ki kashti' which is one of my favourites...

Snela said...

Pain so realistically described, very well crafted..
फटी - फटी तालियों की आहटें..
हरी, नीली, पीली, गीली चाहतें..
एक छींक घन - घन बारिश की..
एक दो अनजान गुज़ारिश भी....added to my list of favorites :)
Great going!