Monday, October 20, 2008

शेख चिल्ली


अब चल शेख चिल्ली
कितना कुछ पाया ख़्वाब में
अब सुन अपनी खिल्ली
भोलापन हर जवाब में
सच ही कहा किसी ने
आंसू भी घोल हँसी में
न कर बातें उखड़ी - उखड़ी
सारी दुनिया जलकुक्ड़ी..

अब चल शेख चिल्ली
तेरी दाल न गलती यहाँ
दम - दम हो या दिल्ली
चल हवा ले चले जहाँ
कोई दूसरा डगर पे
कुछ दूर साथ चलता
गर वो होता मंज़िल
तो कहीं निशान मिलता..

अब सोच शेख चिल्ली
तेरा सोचना था क्या
तूने खर्चे ख़्वाब सारे
तू कितना सिल गया
हाँ, सच कहा किसी ने
मिलते हैं हम बेबसी में
बसता है हम सभी में..
हँसता है हम सभी पे..
बसता है हम सभी में..
हँसता है हम सभी पे..

श.. श.. श.. शेख
शेख चिल्ली...

Tuesday, September 9, 2008

Answer Me


You come to me asking
and I try to answer with stillness,
asking you to ask no further
moving you to move no further..

You come to me with
wrinkled skin, half lit eyes
let me feel your eyelashes,
so you know, how does vision rise
resting in peace and pride..

Tuesday, September 2, 2008

कितनी दफ़ा


कितनी दफ़ा
रुकना पड़ता है..
चलता चलता, साँस लेता
पीछे मुड़ता है..

कितनी दफ़ा
रुकना पड़ता है..

ढूँढ मत मंज़िल
उन्हें राहों ने देखा है..
थक जाएगा, न समझ पायेगा
तेरे पाँव का लेखा है..
तू आँखों से चलेगा
चलता चला जाएगा
घूमती रेखा है..

पर, कितनी दफ़ा
रुकना पड़ता है..
कई दरवाज़े नन्हे हैं
झुकना पड़ता है..

कितनी दफ़ा
रुकना पढ़ता है..

Sunday, July 27, 2008

परस्पर..



कुछ कहाँ बाक़ी रहा मुझमे
फिरा मारा - मारा, पत्थर - पत्थर..
कुछ कभी हासिल हुआ, कोई भी मंज़र
कर्ज़ा रहा वो मुझपर, परस्पर.. परस्पर..
कर्ज़ा रहा वो मुझपर, परस्पर.. परस्पर..

एक उधारी का प्याला..
एक मदहोश उजाला..
एक सरफिरा खिलौना..
एक मह्फ़ूस बिछौना..
एक दिया मोम का गंगा के तट पर
कुछ कभी हासिल हुआ, कोई भी मंज़र
कर्ज़ा रहा वो मुझपर, परस्पर.. परस्पर..
कर्ज़ा रहा वो मुझपर, परस्पर.. परस्पर..

फटी - फटी तालियों की आहटें..
हरी, नीली, पीली, गीली चाहतें..
एक छींक घन - घन बारिश की..
एक दो अनजान गुज़ारिश भी..
और वो लिखना प्यार से दो मीठे अक्षर
कुछ कभी हासिल हुआ, कोई भी मंज़र
कर्ज़ा रहा वो मुझपर, परस्पर.. परस्पर..
कर्ज़ा रहा वो मुझपर, परस्पर.. परस्पर..

Thursday, July 24, 2008

दिल - ए - साहिल


दिल - ए - साहिल
तेरी खता संगीन है..
लहरें नशीली
समंदर तो ग़मगीन है..

होठों पे थम कर गुज़रे
चाशनी सा सुरूर
ज़ुबान से जाना
असर तो नमकीन है..
लहरें नशीली
समंदर तो ग़मगीन है..

दिल - ए - साहिल
तेरी खता संगीन है..

कब कहाँ शब् कोई
सुबह तक जिंदा है
पलकें भारी हों चाहे
नज़र तो रंगीन है..
लहरें नशीली
समंदर तो ग़मगीन है..

दिल - ए - साहिल
तेरी खता संगीन है..

Friday, July 4, 2008

Untitled..


I could never come up with a title for this one.. Ideas welcome..

क्या सोच रहा अभिमानी
खड़ा बेतहाशा?
देख बर्बादी का अनोखा
आज तमाशा

तूने क्या क्या चाहा
मिला देख कितना
खुश होने से है आसान
दुनिया से मिटना

एक-एक कर सारे पत्ते
मुरझाये, झुलस गए
एक रात छत टपकी
अपने सारे बरस गए

गिरवी रख कर रिश्ते
त्योहारों पे दीप जले
जल बुझा आँगन बाहर
अन्दर आतिश ख़ूब पले

चिल्लाये चीखे, हँसे खिले
फिर चले गए चुप चाप
किसी ने किया हंगामा
किसी ने पश्चाताप

कोई उलझा सीधे पथ पर
किसी को वक्त ने मोड़ा
जो बचा उसको कभी
हालात ने न छोड़ा

चल अभिमानी, बढ़ आगे
डूब इस अंधकार में
कितना लाभ उठाएगा
इस अंधे व्यापार में

उठ, अब उठ
अफ़सोस क्यों करता है?
सफ़ेद कपड़े के एक टुकड़े से
क्यों इतना डरता है?
प्यासा है तो आँखें खोल
पलकें क्यों भरता है?

Tuesday, July 1, 2008

तू जैय्यो न घर रात


सखी रे, हो री सखी
तू जैय्यो न घर रात
जाड़े की बैय्याँ थामेगी तुझको
तू सुनके जैय्यो सारी बात..

तू जैय्यो न घर रात..

आंखन में मोरे अब्र जले हैं
आँसू न जाने काहे रूठन चले हैं
जतन करूँ मैं पगली चुप शरमाऊँ
पिया बिरहन की बातें किस को बताऊँ
उस पर हुई बरसात..
तू सुनके जैय्यो सारी बात

सखी रे
तू जैय्यो न घर रात..

आस पड़ोस वाले मारे हैं ताने
सखियन तू चाहे माने न माने
सर पे चंचल जोबन का इल्जाम
पूछे हैं मैय्या मोरी पी का नाम
बहते पसीजे जज़्बात..
तू सुनके जैय्यो सारी बात

सखी रे, हो री सखी
तू जैय्यो न घर रात..